लाइट हाउस वही बन सकता जिसमें सर्व शक्तियों का स्टॉक हो

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बाबा ने कहा है बच्चे लाइट हाउस बनो। तो लाइट हाउस का काम क्या होता है? चारों ओर रोशनी देना। इस समय दुनिया के आत्माओं की यही इच्छा है कि सदा सुखी रहें, सदा शान्त रहें। साधारण अशान्ति से शान्ति तो सब लोग समझते हैं लेकिन हम लोगों की स्थिति ऐसी होनी चाहिए जो मन निगेटिव या व्यर्थ संकल्पों में भी नहीं जायें। इससे किनारा होगा तो हमारे बेस्ट, शुभ संकल्प होंगे। फिर उन समर्थ संकल्पों का वायब्रेशन स्वत: जाता है।
बाबा जब आते हैं तो वायब्रेशन अच्छे लगते हैं, क्यों? क्योंकि वह सागर है। ज्ञान का, सर्व शक्तियों का जो वायुमण्डल में चारों ओर फैल जाता है। तो ऐसे हम सबको भी लाइट हाउस होकर वायुमण्डल फैलाना है। वह हद की रोशनी फैलाने वाला लाइट हाउस तो कॉमन है, लेकिन हम हैं रूहानी लाइट हाउस। शक्ति, शान्ति और खुशी की लाइट देने वाले लाइट हाउस हैं। लेकिन रूहानी लाइट हाउस वही बन सकता है जिसमें सर्व शक्तियों का स्टॉक हो। अगर खुद में ही नहीं होगा तो दूसरों को कैसे देगा? और लाइट हाउस की लाइट तो पॉवरफुल होती है। तो इतनी शक्तियां जमा करके लाइट हाउस बनके वायुमण्डल को परिवर्तन करना है। विश्व परिवर्तन की बहुत बड़ी जि़म्मेवारी है। तो बाबा ने यह जो जि़म्मेवारी दी है, वह हमको अवश्य निभानी चाहिए। कई समझते हैं हम तो बहुत बिज़ी रहते हैं इसलिए पॉवरफुल योग नहीं हो सकता। विदेही बनना, अशरीरी बनना या कर्मातीत बनना – यह तो बहुत ऊंची मंजि़ल है। इसके लिए अगर हम अभी से तैयारी करें तो लास्ट में हमको यह तैयारी मदद देगी।
विदेही माना यह नहीं कि देह से एकदम न्यारे हो जायें फिर तो शरीर छूट जायेगा। विदेही का अर्थ ही है कि कोई भी देह की कर्मेन्द्रियां चाहे सुनने वाली, चाहे देखने वाली, चाहे सोचने वाली यह कोई भी मुख्य कर्मेन्द्रियां हमको देह भान में नहीं लाये अर्थात् देह की कोई भी कर्मेन्द्रियां हमको अपनी तरफ आकर्षित नहीं करे। कई बार कोई-कोई बात से कनेक्शन नहीं होता तो भी आदत होती है- देखेंगे, सुनेंगे…। तो यह समझो हमारी देखने की कर्मेन्द्रियां जो हैं वह लूज़ हैं। वश में नहीं हैं क्योंकि देखेंगे तो सोच भी चलेगा कि कौन आया, देखने की आँख भी धोखा दे रही है और सोच भी चल रही है कि इस समय क्यों आया, कैसे आया तो हमारी कितनी शक्तियां व्यर्थ गईं। ऐसे हर एक में कोई ना कोई नेचर होती है। कोई को कोई मतलब ही नहीं होगा तो भी सोचने की आदत होगी। छोटी-सी बात पर भी सोच बहुत चलेगा, यानी सोचने की शक्ति, मन पर कन्ट्रोल नहीं है। आंख के ऊपर कन्ट्रोल नहीं है, कान के ऊपर कन्ट्रोल नहीं है और किसी की फिर बोलने की आदत होती। दो की बात चल रही होगी तो वह वहाँ भी ज़रूर बीच में बोलेगा, रह नहीं सकेगा। कोई कनेक्शन ही नहीं है फिर भी वह बोलेगा ज़रूर। कोई ना कोई विशेष कर्मेन्द्रियां जो होती हैं वह खींचती हैं, तो हर एक को अपनी चेकिंग करनी चाहिए कि कौन-सी कर्मेन्द्रियां मेरे कन्ट्रोल में नहीं हैं? जो अपने कन्ट्रोल में नहीं है वही अन्त में धोखा देंगी। क्योंकि अन्त में सभी बातें देखने, सुनने, सोचने की होंगी। बोलने के लिए तो उस समय, समय नहीं होगा, लेकिन अन्दर बोलेंगे ज़रूर।
तो विदेही तब बन सकेंगे जब यह सब कर्मेन्द्रियां कन्ट्रोल में हों। इस देह की कर्मेन्द्रियां मेरे को क्यों खींचती हैं? क्योंकि कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं है तो फिर विदेही कैसे बनेंगे? देह से न्यारा माना देह से कोई अलग तो नहीं हो जायेंगे। लेकिन कोई भी देह की कर्मेन्द्रियां हमको अपने तरफ खींचे नहीं, यह प्रैक्टिस ज़रूर चाहिए। नहीं तो अन्त में जब हालतें बहुत खराब होंगी, उस समय कन्ट्रोलिंग पॉवर अगर नहीं होगी तो कभी भी पास विद ऑनर नहीं हो सकते हैं। और बाबा तो कहते हैं कि अन्त में तो एक सेकण्ड का पेपर होगा -स्मृतिलब्ध:, नष्टोमोहा। कर्मेन्द्रियों से सुनने, देखने, बोलने और सोचने का भी तो मोह होता है। उसे भी तो बॉडी-कॉन्सेस का ही एक हिस्सा कहेंगे। नष्टोमोहा माना सम्बन्धियों या वैभवों से, चीज़ों से जरा भी मोह नहीं। अपने शरीर की कोई भी कर्मेन्द्रियां अगर खींचती है माना मोह है, उससे प्यार है। तो नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप कैसे होंगे? तो इसके लिए एक सहज अभ्यास है कि हम चाहे कितने भी बिजी रहते हैं कि लेकिन मैं आत्मा मालिक इन कर्मेन्द्रियों से यह काम करा रही हूँ। जैसे कोई डायरेक्टर, बॉस होता है – वह अपने ही कमरे में एक कुर्सी पर बैठा रहता है। परन्तु उसको यह नैचुरल याद रहता है कि मैं डायरेक्टर हूँ, यह कर्मचारी जो भी मेरे साथी हैं उनसे कराने वाला हूँ। मैं जिम्मेवार हूँ। यह तो याद रहता है ना! ऐसे यह भी याद रहे कि र्मै ंआत्मा करावनहार हूँ और यह कर्मेन्द्रियां जो हैं मेरी कर्मचारीहैं यानी सारथी हैं। मददगार तो यह कर्मेन्द्रियां ही हैं। लेकिन मैं मालिक हूँ, कराने वाला हूँ। मालिक कहने से आत्मा अलग हो जाती है, शरीर अलग हो जाताहै। यह प्रैक्टिस हम बीच बीच में काम कतरे भी करें, यह नशा रखें कि मैं आत्मा करावनहार हूँ या मै ंआत्मा मालिक हूँ। मालिकपन आयेगा तो न्यारापन ऑटोमेटिक होगा। कराने वाला मैं हूँ और यह करने वाली हैं तो डायरेक्श्न से ज़रूर चलेंगे। अगर कोई डायरेक्शन प्रमाण नहीं चलते हैं तो समझेंगे कि यह तो नहीं चल सकेगा। तो कर्म छोड़कर नहीं लेकिन कर्म करते हुए यह याद करना है कि मैं कराने वाली आत्मा मालिक हूँ, यह कर्मेन्द्रियां अलग हैं, फिर कन्ट्रोल करना सहज है। यदि मालिक को मालिकपन ही याद नहीं होगा तो सर्वेन्ट मानेगा कैसे! कम्पनी के डारयेक्टर जो होते हैं वह अपने वर्कर्स को कितना बिजी रखने की कोशिश करते हैं, तो मैं भी मालिक हूँ तो इन कर्मेन्द्रियों को क्यों नहीं बिजी रखूँ। दूसरा मैं मालिक हूँ तो विदेही यानी देह से न्यारे का अभ्यास नैचुरल होता जाता है! कर्म करते हुए यह अभ्यास करते रहो तो आपका लिंक जुटा रहेगा। और लिंक जुआ हुआ होने के कारण फिर जब आपको फुर्सत मिलती है उस समय आप विदेही बन जाओ। लेकिन विदेही का मतलब यह नहीं है कि चींटी ऊपर चढ़े तो पता ही नहीं पड़े। लेकिन जैसे कोई बहुत डीप विचार में होते हैं, कोई बात में बहुत रूचि होती है, सुनने की, देखने की तो उस समय बाहर कुछ भी होता रहे फिर भी हमारा अटेन्शन नहीं जाता है। समझो मैं खाना खा रही हूँ और मेरा कुछ विचार चल रहा है, जिसमें मेरा पूरा ध्यान उसी विचार में है तो खाना तो मैं मुख में ही डाल रही हूँ लेकिन अगर कोई मेरे से पूछे कि आज नमक ठीक है? तो आप जवाब नहीं दे सकेंगे क्योंकि आपका विचार जो है वह दूसरे तरफ इतना डीप था जो आपने खाया भी लेकिन खाते हुए भी आप न्यारे रहे। तो जब देह में होते आपको पता ही नहीं पड़ा कि मीठा है, खट्टा है। ऐसे ही अगर हम देह में होते हुए अपने ही मनन चिंतन में हैं, मालिकपने के नशे में हैं तो मुझे यह कर्मेन्द्रियां क्यों आकर्षित करेंगी? नहीं कर सकती हैं। यह अभ्यास बहुत सहज है क्योंकि इसमें काम को छोडऩे की बात नहीं है। काम करते हुए मालिकपन चाहिए। तो कर्म भी अच्छा होगा और विदेहीपन का अभ्यास भी पक्का होता जायेगा।
एकान्त में इसका अभ्यास और अच्छी तरह कर सकते हैं। एकान्त में मालिकपने के नशे का मजा तो कुछ और ही होता है। भिन्न-भिन्न स्वमान का नशा और खुशी रहे तो भी मालिकपने की स्मृति और पक्की होती जायेगी। और इससे याद ऑटोमेटिकली आ जायेगी क्योंकि जितना आप मालिकपन में रहेंगे तो कर्मेन्द्रियां धोखा नहीं देंगी। और मैं आत्मा हूँ, यह पक्का होता जायेगा। मालिक हूँ, आत्मा हूँ। तो शिवबाबा की याद बहुत सहज हो जायेगी क्योंकि मैं भी अशरीरी वह भी अशरीरी। बीच में पर्दा है यह शरीर का इसलिए योग नहीं लगता है।और जब मैं आत्मा मालिक अशरीरी हूँ औरबाबा भी अशरीरी है तो एक जैसे हो गये। तो कनेक्शन बहुत जल्दी हो जायेगा यानी योग जल्दी लग जायेगा। तो यह अभ्यास ज़रूर करो। जब देह से अलग होते जायेंगे, होते जायेंगे तो वैराग्य क्या बड़ी बात है। मालिकपने के नशे और खुशी केरस के आगे यह जो भी लगाव की चीज़ें हैं वह ऐसे लगेंगी जैसे बिलकुल फीकी हैं, कुछ भी नहीं हैं। और अलग अलग मेहनत करने से बच जायेंगे।

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