योगाभ्यास कैसे करें, योगाभ्यास में मन की कौन-कौन-सी अवस्थायें होती हैं…!!!

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‘योग’ शब्द अपने आप में ही परम सत्ता के साथ जोडऩे के तरफ प्रेरित करता है। योग की मुख्त: तीन अवस्थायें होती हैं। पहले तो ये स्पष्ट ज्ञान होना ज़रूरी है कि किससे योग लगाना, क्यों लगाना और उससे मेरा क्या वास्ता है। फिर उन अवस्थाओं का अनुभव कर सकते।

‘योग’ का अर्थ है — मन को परमपिता परमात्मा से जोडऩा। इसके लिये मन को परमपिता परमात्मा ही की अनन्य स्मृति में एकाग्र अथवा लवलीन करना होता है। परमात्मा की स्मृति में एकटिक स्थिति होने के लिये परमात्मा के परमधाम तथा दिव्य स्वरूप आदि का परिचय होना ज़रूरी है ताकि मन को उनमें एकतान किया जा सके।
जो लोग योग को ‘चित्त-वृत्ति-निरोध’ मानते हैं, वे भी योगाभ्यास के लिये प्रत्याहार, धारणा और ध्यान का अभ्यास आवश्यक बताते हैं। ‘प्रत्याहार’ का अर्थ है — मन को सांसारिक विषयों से हटाना। ‘धारणा’ का भाव है,— मन को किसी एक स्थान पर टिकाना, एक देश-विदेश में बांधना। ‘ध्यान’ से अभिप्राय है — अपने ध्येय में मन को स्थिर रखना। इस अभ्यास से वे स्माधि को प्राप्त करना चाहते हैं। इसके लिए वे मन को प्राणायाम इत्यादि से हठ पूर्वक विषयों से हटाते हैं और किसी शरीरांग(जैसे कि नासिका के अग्र भाग) या मूर्ति इत्यादि पर अपनी दृष्टि को तथा मन को स्थिर करते हैं। परन्तु हमें तो मन को परमपिता परमात्मा के स्वरूप में तन्मय करके यथार्थ योग का अभ्यास करना है।

योगाभ्यास कैसे करें?
हमें अब यह मालूम है कि परमात्मा भी अन्य आत्माओं की भाँति एक आत्मा ही हैं परन्तु वे ‘परम’ हैं, अर्थात् जन्म-मरण तथा सुख-दु:ख से न्यारे हैं। अत: वे भी सभी आत्माओं की भाँति एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्योति-कण अथवा चेतन-बिन्दु हैं, जोकि कर्मातीत हैं और कभी अपना शरीर नहीं लेते। वे सूर्य, चाँद एवं तारागण से पार, परमधाम अथवा ब्रह्मलोक में वास करते हैं और केवल धर्मग्लानि ही के समय वहाँ से अवतरित होकर, इस सृष्टि में परकाय प्रवेश करके, प्राय: लुप्त ज्ञान और योग की शिक्षा देने आते हैं। अत: वे ही मानवमात्र के परमगुरु भी हैं और परमपिता भी हैं क्योंकि वे ज्ञान और योग द्वारा नव जीवन अथवा आत्मिक उज्जीवन प्रदान करते हैं तथा सर्व मानवात्माओं रूप सन्तति को सम्पूर्ण पवित्रता, सुख एवं शान्ति की पैतृक सम्पत्ति भी देते हैं। इस प्रकार संसार का कल्याण करने के कारण वे ‘शिव’ कहलाते हैं(यह ‘शिव’ शंकर से भिन्न हैं)! इन्हीं की दीर्घाकार प्रतिमा शिवलिंग मन्दिरों में स्थापित है।
अत: जबकि हमको ध्येय(परमात्मा शिव) का भी यथार्थ ज्ञान है, उसके देश(परमधाम) का भी और यह ज्ञान भी है कि विषय पदार्थों से आसक्ति, दु:ख का कारण है, तो हम प्रत्याहार(विषयों से मन को हटाने), धारणा(उसे ब्रह्मलोक अथवा परमधाम में टिकाने) और ध्यान — (ज्योति-बिन्दु परमपिता, परमसद्गुरु परमात्मा पर एकाग्र करने) का अभ्यास सहज, स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक एवं युक्ति-युक्त रीति से कर सकते हैं। हम नासिका के अग्र भाग, या कमल नाभि इत्यादि पर, किसी प्रतिमा इत्यादि पर भी कल्पित एवं कायिक देव-रूप पर स्थिर करने की भी क्या ज़रू रत है? हम तो मन को सृष्टि के रचयिता, सूक्ष्म ब्रह्म-तत्व वाले देश(ब्रह्मलोक) के वासी ज्योति-बिन्दु, शिव की ही लग्न में लगाते हैं जो कि ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द के सागर, प्रेम के सागर और सर्वशक्तिमाान हैं।

योगाभ्यास में अवस्थाएँ

1). लग्नावस्था
जब कोई मनुष्य योगाभ्यास करने के लिये बैठता है तब उसके मन में प्रभु के लिये लगन तो होती ही है क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने तथा विषय-विकारों में पडऩे का दु:ख रूप परिणाम जानने के बाद वह यह तो महसूस करता ही है कि — मैं यह पाँच तत्वों का पुतला (शरीर) नहीं हूँ बल्कि चेतन आत्मा हूँ और मुझे परमपिता परमात्मा से लौ लगाकर पतित से पावन एवं भोगी से योगी बनना चाहिये। अत: वह लगन को लेकर जब मन को परमात्मा की स्मृति में समाहित करने की चेष्टा करता है तो पुरुषार्थ शुरू होते ही उसके जन्म-जन्मान्तर के संस्कार तथा मन की चंचल प्रवृत्तियाँ बाधा डालती हैं। इस अवस्था को क्रलग्न अवस्थाञ्ज कह सकते हैं। पतंजलि ने इसे क्रव्युत्थान अवस्थाञ्ज कहा है। व्युत्थान का अर्थ यह है कि मन ऊपर उठना तो चाहता है परन्तु उसमें मन की चंचलता तथा संस्कार उसे उठने नहीं देते बल्कि विघ्न डालते हैं।

2). मनन अवस्था
लग्न को लेकर अभ्यास की सर्वप्रथम विधि है — ज्ञान का मनन। मन को संकल्प-शून्य करने की बजाय उसे ईश्वरीय ज्ञान के मन्थन में लगा देना, परमात्मा के स्वरूप के मनन-चिन्तन में जुटा देना ही युक्ति-युक्त पुरुषार्थ है क्योंकि पहले-पहल अशुद्ध संकल्पों को मन में पैदा होने से रोकने का तरीका है — शुद्ध संकल्प करना। ”मैं आत्मा हूँ… ज्योति स्वरूप परमधाम के वासी, परमपिता परमात्मा शिव की अविनाशी सन्तान हूँ…” इस प्रकार, आत्मा तथा परमात्मा सम्बन्धी और सृष्टि-चक्र के आदि-मध्य-अन्त सम्बन्धी ज्ञान का मनन करना, उस ज्ञान में रमण करना, उसकी जुगाली करना, उसके अर्थ-स्वरूप में टिकने का पुरुषार्थ करना अथवा उसके गूढ़ भाव में चले जाना — यह योग की दूसरी अवस्था है। इसे ही मेडिटेशन अथवा ‘मननावस्था’ कहा जाता है। पतंजलि ने इसे ‘समाधि प्रारम्भ अवस्था’ कहा है। इससे मनुष्य को अभूतपूर्व शान्ति का कुछ क्षणों के लिये अनुभव होता है, किसी-किसी को दिव्य-प्रकाश भी भासता है; इस प्रारम्भिक अभ्यास के लिये प्रभु-प्रेम अथवा ईश्वरीय ज्ञान के गीत अथवा ब्रह्म-तत्व के दिव्य-प्रकाश से मिलती जुलती लाल-रोशनी अथवा अव्यक्त ब्रह्मापुरी का-सा श्वेत रंग का वातावरण, सामने योगारूढ़ व्यक्ति की योग-दृष्टि सहायक होते हैं।

3). मग्नावस्था
जैसे-जैसे मनुष्य ब्रह्मचर्य, आहार शुद्धि, संग-शुद्धि, व्यवहार और आचार सम्बन्धी नियमों का पालन करता जाता है और अपनी दिन-चर्या को भी ज्ञानानुकूल बनाता जाता है, वैसे-वैसे उसके मन की ऐसी भूमिका बनती जाती है कि वह योगाभ्यास के लिये बैठते ही थोड़े से पुरुषार्थ से ही प्रभु-स्मृति में मग्न अथवा लवलीन हो जाता है। अब उसे ज्ञान का ज्य़ादा मनन नहीं करना पड़ता बल्कि, ज्ञानमय स्वभाव हो चुके होने के कारण अब वही आत्म-निष्ठ तथा परमात्मा की स्मृति में स्थित हो जाता है। अब उसे मन में ऐसा संकल्प या विचार नहीं करना पड़ता कि — ”मैं आत्मा हूँ, परमपिता परमात्मा शिव की सन्तान हूँ… ब्रह्मलोक से आया हूँ” इत्यादि। बल्कि अब तो वह योगाभ्यास के लिये कृत-संकल्प होते ही परमात्मा के स्वरूप मे समाहित मनसा वाला हो जाता है।
उसका मन उसकी बुद्धि के वश हो चुके होने के कारण अब उसकी प्रज्ञा अथवा उसका विवेक प्रभु पर टिक जाता है और अनुभूति का रस लेने लगता है। परमात्मा के ज्ञान-स्वरूप, शान्तिस्वरूप, आनन्द स्वरूप, प्रेम-स्वरूप इत्यादि जिस स्वरूप का लोग प्राय: वर्णन करते हैं, उसका वह तन्मयता से अनुभव करने में व्यस्त होता है। वह स्वयं को लाइट और माइट ही अनुभव करता है और इस अवस्था को पाकर वह स्वयं को कृतार्थ अथवा सौभाग्यशाली मानता है। इसे ही जीवन का सर्वोत्कृष्ट सुख समझता है तथा इसी रस में डूबा रहना चाहता है। इस अवस्था का बारम्बार अभ्यास करने से मनुष्य के हेय संस्कार तनु होने लगते हैं तथा उसमें ईश्वरीय गुण प्रवेश करने लगते हैं। मानसिक निर्मलता प्राप्त होने के साथ-साथ उसे ईश्वरीय प्रेरणाओं को समझने की योग्यता भी मिलती है और उसकी बुद्धि दिव्य हो जाती है। पतंजलि इस बुद्धि को ‘ऋतम्भरा बुद्धि’ कहता है और योगाभ्यास में इस चित्तावस्था को ‘एकाग्र अवस्था’ कहता है। इस अवस्था में मनुष्य को बहुत ही दिव्य अनुभव होते हैं और सतोप्रधानता का प्रादुर्भाव होता है।
इस तरह योग करने से मनुष्य का दिव्यीकरण होता है। वो प्रभु प्रेम व उनके आदेश और उद्देश्य का स्वाभाविक पालन करता है।

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