प्रश्न: मेरा नाम सतीश है। मैं आनंदपुर से हूँ। तो क्या धर्म और अध्यात्म की शक्ति संसार को कुछ दे पायेगी या धर्म मनुष्य को केवल कमज़ोर ही बनाता जायेगा? इतिहास साक्षी है कि धर्म ने सत्ता को निर्बल किया और अनेक लोग भय के शिकार हो गये। कृपया इस पर प्रकाश डालें।
उत्तर : बहुत ही सुन्दर प्रश्न है आपका। हम भी यही चिंतन करते आते थे कि धर्म ने मनुष्य को कमज़ोर किया। सम्राट अशोक जो हमारे इतिहास में प्रसिद्ध हैं, मैं उन्हीं का उदाहरण दूंगा। और भी कुछ हैं उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। युद्ध का मार्ग त्याग दिया। क्योंकि युद्ध का मार्ग उन्होंने हिंसा समझा। उसके बाद क्या हुआ कि उन्होंने सेनाओं पर ध्यान नहीं दिया। इसलिए उसके बाद उनका शासन कमज़ोर पड़ गया। दिखाया गया है मौर्यवंश उसके बाद ढीला पडऩे लगा। सात पीढ़ी चली शायद उसके बाद वो समाप्त हो गया। तो ये सत्य है कि इतिहास भी गवाह है कि धर्म ने मनुष्यों को निर्बल किया। लेकिन इसका एक कारण है कि धर्म का एक सम्पूर्ण ज्ञान मनुष्य के पास तब भी नहीं था, हो सकता है कि मेरी ये बात चिंतकों को भाये नहीं देखिए मैं बिल्कुल साफ कहूंगा, क्रिश्चयन धर्म में प्रेम, बौद्ध धर्म में दया, अहिंसा, जैन धर्म में भी ऐसा ही कुछ। और धर्मों में एक-एक क्वालिटी ले ली गई है। सम्पूर्णता जो है वो नहीं रही। वो केवल एक ही धर्म में दिखाई देती है, लेकिन अब वो केवल पुस्तकों में रह गई। वो है भारत का आदि सनातन देवी-देवता धर्म। उसमें वो सम्पूर्णता है। तो मनुष्यों को अहिंसक भी होना चाहिए और शक्तिशाली भी। वो दयावान भी होना चाहिए, लेकिन सबकी सुरक्षा करने वाला भी। उसको सबके लिए प्रेम भाव भी रखना चाहिए, लेकिन बहुत सशक्त भी होना चाहिए। यदि कोई उस पर आक्रमण करे तो वो उसका सामना करने में, उसको जवाब देने में सक्षम है। अहिंसा के अर्थ को हमें समझना होगा कि अहिंसा का मतलब ये ही नहीं है कि हम हथियार ही डाल दें। इसका ये भी भाव है कि हम आत्म रक्षा अवश्य करें। अब लोग मच्छरों को क्यों मार रहे हैं, अब ये भी तो हिंसा है। अरे मच्छर तुम्हें मार रहे हैं, तंग कर रहे हैं, सोने नहीं दे रहे। तो आपने ऑलआउट लगा दी तो इसमें कौन-सी हिंसा हो गई। लोगों ने हिंसा को क्या है कायरता बना दिया। ये वास्तव में हिंसा है ही नहीं। आत्म रक्षा के लिए यदि हम पर कोई आक्रमण कर रहा है, यदि हमारे सामने कोई बुरा काम कर रहा है तो हम इतने शक्तिशाली होने चाहिए कि हम उसको भी रोक सकें और अपने को बचा सकें। यही सच्ची अहिंसा है।
वास्तव में धर्म मनुष्य को शक्तिशाली बनाता है। कहा जाता है रिलीजन इज़ माइट। धर्म में बहुत शक्ति है। लेकिन धर्म के उस सत्य स्वरूप को जानना पड़ेगा। अध्यात्म में रियल शक्ति है धर्म की। धर्म को लोगों ने यही मान लिया कि पूजा-पाठ करो, मंदिर निर्माण करा दो। लेकिन ये अपूर्ण स्वरूप है धर्म का। वास्तव में मैं कहना चाहूंगा, जहाँ ये धर्म और अध्यात्म दोनों मिल जायें, जहाँ धर्म का सम्पूर्ण स्वरूप मनुष्य के जीवन में आ जाये उस मनुष्य से शक्तिशाली संसार में कोई नहीं हो सकता। और ऐसा धर्म और अध्यात्म न केवल भारत का, लेकिन सारे संसार का कल्याण करेगा और उसे निर्बल नहीं ऐसा शक्तिशाली बनाएगा मानो भारत में हम अध्यात्म और धर्म का बल बढ़ा दें तो हम इतने शक्तिशाली बन जायेंगे कि संसार में बड़ी से बड़ी शक्ति भी हमारी ओर आँख उठा कर नहीं देख सकती। आदि सनातन धर्म अब सुनने को नहीं मिलता है। अब ये लोप हो गया है। लोग अपने को सनातनी कहने लगे हैं। यानी जो श्रीराम के भक्त हैं। सनातन भी एक सम्प्रदाय बन गया है, जैसे वैष्णव सम्प्रदाय बन गया है। तो एक स्वामी नारायण सम्प्रदाय बन गया है। हिन्दु धर्म में भिन्न-भिन्न भेद हो गये हैं। कोई वैष्णव मत को मानने वाले हैं, कोई विष्णु के पुजारी हैं। उसमें मान्यता रखते हैं। लेकिन ये वास्तव में एक ही धर्म था जिसका अब से कुछ समय पहले नाम था हिन्दु धर्म।
शंकराचार्य आये उससे पहले ये धर्म के बहुत सारे सम्प्रदाय जो बन गये हैं, वो नहीं थे। और उससे पहले उसी धर्म का मूल नाम था आदि सनातन देवी देवता धर्म। तो ये धर्म सतयुग और त्रेतायुग तक चला। दो युग तक धर्म का आदिपत्य रहा। और बाद में इसी का नामान्तरण हुआ हिन्दु रूप में। और फिर हिन्दु धर्म में बहुत सारे सम्प्रदाय बन गये। इस तरह धर्म का स्वरूप थोड़ा बिगड़ता गया और निगेटिव भी होता गया।
प्रश्न : मैं कोल्हापुर से हूँ। मेरा नाम आनंद है। मैं आपका कार्यक्रम समाधान नियमित रूप से देखता हूँ और आप प्राय: अध्यात्म शब्द का प्रयोग करते हैं, धर्म का नहीं। मैं जानना चाहता हूँ कि ये अध्यात्म और धर्म क्या ये दोनों अलग चीज़ें हैं?
उत्तर : ये तो एक ऐसा विस्तृत और विशाल विषय है, इस पर बहुत अच्छी चर्चायें की जा सकती हैं। धर्म के स्वरूप तो हम सभी देखते हैं। और धर्म अलग-अलग हैं ये भी हम देखते हैं। और लोग ये भी कोशिश करते हैं कि सभी धर्म एक हो जायें। जो बिल्कुल असंभव कार्य है। लोगों ने कोशिश करके देख लिया। क्योंकि धर्म आजकल ऐसा स्वरूप ले चुका है कि हर व्यक्ति सोचता है कि मेरा धर्म ही श्रेष्ठ है, मुझे अपने धर्म का ही पालन करना चाहिए। दूसरों का धर्म तो बेकार है। उनके लिए लोगों के मन में सम्मान भी नहीं रहा। धर्म के साथ अगर अध्यात्म भी जुड़ जाता है तो धर्म रियल स्वरूप ले लेता है मनुष्य के जीवन में। तब उसे पूजा-पाठ की ज़रूरत नहीं होती। उसका जीवन ही धर्म का स्वरूप होता है।
उसे ग्रंथ पढऩे की भी ज़रूरत नहीं होती। उसका जीवन ही एक सुन्दर गं्रथ होता है। जीवन ही अपना तीर्थ बन जाता है। वास्तविक चीज़ अध्यात्म ही है। अध्यात्म के बिना धर्म में गिरावट होती आई है। जो हमने चर्चा की। धर्म बहुत सतोप्रधान स्वरूप में था, बहुत पवित्र था लेकिन अब धर्म का स्वरूप ऐसा हो गया है कि विदेशों में तो धर्म के नाम से लोग चिडऩे लगे। क्रिश्चयन जो इतना बड़ा धर्म कहलाता है अगर उसमें सर्वे किया जाये कि कितने लोग धर्म को मानने और जानने वाले, तो शायद एक प्रतिशत भी न हों। वहां तो भगवान के नाम से ही लोग चिडऩे लगे। हमारे भारत में कम से कम वो स्थिति तो नहीं है। युवक फिर भी धार्मिक भावनाओं से जुड़े रहते हैं। तो अध्यात्म को अगर समझ लिया जाये यानी आत्मा और परमात्मा को जानना, दोनों का सम्बन्ध जोड़ लेना, आत्म उन्नति करना, चित्त को शुद्ध करना, मनोविकारों का त्याग करना, ये सब अध्यात्म कहलाता है।