परमात्म ऊर्जा

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अपने को लवफुल और लॉफुल दोनों ही समझते हो? जितना भी लवफुल उतना ही लॉफुल हो कि जब लवफुल बनते हो तो लॉफुल नहीं बन सकते हो व जब लॉफुल बनते हो तो लवफुल नहीं सकते हो? क्या दोनों ही साथ-साथ एक ही समय कर्म में व स्वरूप में दिखाई दे सकते हैं? क्योंकि जब तक लॉ और लव दोनों ही समान नहीं हुए हैं तब तक कार्य में सदा सफलतामूर्त बन नहीं सकते। सफलतामूर्त व सम्पूर्णमूर्त बनने के लिए इन दोनों की आवश्यकता है। लॉफुल अपने आप के लिए भी बनना होता है। न सिर्फ दूसरों के लिए लॉफुल बनना पड़ता है लेकिन जो स्वयं अपने प्रति लॉफुल बनता है वही दूसरों के प्रति भी लॉफुल बन सकता है। अगर स्वयं अपने प्रति कोई भी लॉ को ब्रेक करता है तो वह दूसरों के ऊपर लॉ चला नहीं सकता। कितना भी दूसरों के प्रति लॉफुल बनने का प्रयत्न करेगा लेकिन बन नहीं सकता। इसलिए अपने आप से पूछो कि मैं अपने प्रति व अन्य आत्माओं के प्रति लॉफुल बना हूँ? प्रात: से लेकर रात तक मंसा स्वरूप में अथवा कर्म में सम्पर्क व एक-दो को सहयोग देने में, व सेवा में कहाँ भी किस प्रकार का लॉ ब्रेक तो नहीं किया? जो लॉ ब्रेकर होगा वह नई दुनिया का मेकर नहीं बन सकेगा। व पीस मेकर, न्युवल्र्ड मेकर नहीं बन सकेगा। तो अपने आपको देखो कि मैं न्युवल्र्ड मेकर व पीस मेकर, लॉ मेकर हूँ व लॉ ब्रेकर हूँ? जो स्वयं लॉ मेकर हैं वही अगर लॉ को ब्रेक करता है तो क्या ऐसे को लॉ मेकर कहा जा सकता है? ईश्वरीय लाज(कायदे) व ईश्वरीय नियम क्या हैं, वह सभी स्पष्ट जान गये हो व अभी जानना है? जानने का अर्थ क्या होता है? जानना अर्थात् चलना। जानने के बाद मानना होता है, मानने के बाद फिर चलना होता है। तो ऐसे समझें कि यह जो भी बैठे हुए हैं वह सभी जान गये हैं अर्थात् चल रहे हैं? अमृतवेले से लेकर जो भी दिनचर्या बता रहे हो वह सभी ईश्वरीय लाज के प्रमाण बिता रहे हो कि इसमें कुछ परसेन्टेज है? जानने में परसेन्टेज है? अगर जानने में परसेन्टेज नहीं है और जानकर चलने में परसेन्टेज है तो उसको जानना कैसे कहेंगे? यथार्थ रूप से नहीं जाना है तब चल नहीं पाते हो व जान गये हैं बाकी चल नहीं पाते हो, क्या कहेंगे? जब कहते हो यहाँ जानना, मानना, चलना एक ही है; फिर यह अन्तर क्यों रखा है? अज्ञानियों को यह समझाते हो कि आप जानते हो हम आत्मा हैं, लेकिन मानकर चलते नहीं हो। आप भी जानते हो कि यह ईश्वरीय नियम हैं, यह नहीं हैं; जानकर फिर चलते नहीं हो तो इस स्टेज को क्या कहेंगे?पुरूषार्थी जीवन में गलती होना माफ है, ऐसे? जैसे ड्रामा की ढाल सहारा दे देती है वैसे पुरूषार्थी शब्द भी हार खाने में व असफलता प्राप्त होने में बहुत अच्छी ढाल है। अलंकारोंमें यह ढाल दिखाई हुई है? ऐसे को पुरूषार्थी कहेंगे? पुरूषार्थ शब्द का अर्थ क्या करते हो? इस रथ में रहते अपने को पुरूष अर्थात् आत्मा समझकर चलो, इसको कहते हैं पुरूषार्थी। तो ऐसे पुरूषार्थ करने वाला अर्थात् आत्मिक स्थिति में रहने वाला इस रथ का पुरूष अर्थात् मालिक कौन है? आत्मा ना। तो पुरूषार्थी माना अपने को रथी समझने वाला। ऐसा पुरूषार्थी कब हार नहीं खा सकता। तो पुरूषार्थ शब्द इस रीति से यूज़ न करो। हाँ, ऐसे कहो- हम पुरूषार्थहीन हो जाते हैं तब हार होती है। अगर पुरूषार्थ में ठीक लगा हुआ है तो कब हार नहीं हो सकती है। जानने और चलने में अगर अन्तर है तो ऐसी स्टेज वाले को पुरूषार्थी नहीं कहा जायेगा। पुरूषार्थी सदैव मंजि़ल को सामने रखते हुए चलते हैं, वह कब रूकता नहीं। बीच बीच में मार्ग में जो सीन आती हैं उनको देखने लगते हैं लेिकन रूकते नहीं। देखते हो व देखते हुए नहीं देखते हो? जो भी बात सामने आती है उनको देखते हो? ऐसी अवस्था में चलने वाले को पुरूषार्थी नहीं कहा जा सकता। पुरूषार्थी कब भी अपनी हिम्मत और उल्लास को छोड़ते नहीं हैं। हिम्मत, उल्लास सदा साथ है तो विजय सदैव है ही। हिम्मतहीन जब बनते हैं अथवा उल् लास के बजाय किसी न किसी प्रकार का आलस्य जब आता है तब ही हार होती है। और छोटी सी गलती करने से लॉफुल बनने के बजाय स्वयं ही लॉ मेकर होते हुए लॉ को ब्रेक करने वाले बन जाते हैं। वह छोटी सी गलती कौन सी है? एक मात्रा की सिर्फ गलती है। एक मात्रा के अन्तर से लॉ मेकर के बजाय लॉ को ब्रेक करने वाले बन जाते हैं। ऐसे सदा सरेन्डर रहें तो सफलतामूर्त, विजयीमूर्त बन जायेंगे। लेकिन कभी कभी अपनी मत चला देेते हैं, इसलिए हार होती है। अच्छा, एक मात्रा के अन्तर का शब्द है -शिव के बजाए शव को देखते हैं। शव को देखने से शिव को भूल जाते हैं। शिव शब्द बदलकर विष बन जाता है। विष, विकारों की विष। एक मात्रा के अन्तर से उल्टा बन जाने से विष भर जाता है। उसका फिर परिणाम भी ऐसा ही निकलता है। उल्टे हो गये तो परिणाम भी ज़रूर उल्टा ही निकलेगा। इसलिए कब भी शव को न देखो अर्थात् इस देह को न देखो। इनको देखने से अथवा शरीर के भान में रहने से लॉ ब्रेक होता है। अगर इस लॉ में अपने आपको सदा कायम रखो कि शव को नहीं देखना है; शिव को देखना है तो कब भी कोई बात में हार नहीं होगी, माया वार नहीं करेगी। जब माया वार करती है तो हार होती है। अगर माया वार ही नहीं करेगी तो हार कैसे होगी? तो अपने आपको बाप के ऊपर हर संकल्प में बलिहार बनाओ तो कब हार नहीं होगी। संकल्प में भी अगर बाप के ऊपर बलिहार नहीं हो, तो संकल्प कर्म में आकर हार खिला देते हैं। इसलिए अगर लॉ मेकर अपने को समझते हो तो कभी भी इस लॉ को ब्रेक नहीं करना। चेक करो – यह जो संकल्प उठा वह बाप के ऊपर बलिहार होने योग्य है? कोई भी श्रेष्ठ देवताएं होते हैं, उनको कभी भी कोई भेंट चढ़ाते हैं तो देवताओं के योग्य भेंट चढ़ाते हैं, ऐसे वैसे नहीं चढ़ाते। तो हर संकल्प बाप के ऊपर अर्थात् बाप के कत्र्तव्य के ऊपर बलिहार जाना है। यह चेक करो – जैसे ऊंच ते ऊंच बाप है वैसे ही संकल्प भी ऊंच है जो भेंट चढ़ावें? अगर व्यर्थ संकल्प, विकल्प हैं तो बाप के ऊपर बलि चढ़ा नहीं सकते, बाप स्वीकार कर नहीं सकते। आजकल शक्तियों और देवियों का भोजन होता है तो उसमें भी शुद्धिपूर्वक भोग चढ़ाते हैं। अगर उसमें कोई अशुद्धि होती है तो देवी भी स्वीकार नहीं करती है, फिर वह भक्तों को महसूसता आती है कि देवी ने हमारी भेंट स्वीकार नहीं की। तो आप भी श्रेष्ठ आत्मायें हो। शुद्धि पूर्वक भेंट नहीं है तो आप भी स्वीकार नहीं करते हो। ऊंच ते ऊंचे आप के आगे क्या भेंट चढ़ानी है वह तो समझ सकते हो। हर संकल्प में श्रेष्ठता भरते जाओ, हर संकल्प बाप और बाप के कत्र्तव्य में भेंट चढ़ाते जाओ। फिर कब भी हार नहीं खा सकेंगे।

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