संसार में रहें किन्तु… हंस की तरह

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हमें संसार में रहना है हंस की तरह। आप हंस को देखिए, हंस का कत्र्तव्य क्या है, वो क्या करता है, उसे समझें। हमें परमात्मा ने टाइटल दिया है कि आप भी होली हंस की तरह विचरण करें। हंस का कत्र्तव्य ही है व्यर्थ और समर्थ को परखना। अर्थात् कंकड़ और रतन को अलग करना। उसी तरह होली हंस भी व्यर्थ और समर्थ को परखता और परिवर्तन करता है। चलते-चलते सारे दिन में कई ऐसी बातें हमारे सामने आती, कई ऐसे दृश्य भी दिखाई देते, व्यक्तियों से मिलना होता, सम्पर्क में आते और व्यर्थ कर्म भी दिखाई पड़ते। तो हमें इसी व्यर्थ को समर्थ कर समाप्त करना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो व्यर्थ का किचड़ा जमा होते-होते उस दलदल का बोझ हमारे सिर पर बढ़ता रहेगा और हम दुर्बल होते रहेंगे। तब हम आने वाली बातों को, परिस्थितियों को और व्यर्थ को सही तरह से हैंडल करने में असक्षम होंगे। हमें हमेशा क्रहोली हंसञ्ज के टाइटल को स्मृति में रखते हुए सारे दिन में होने वाले व्यर्थ के बोझ से मुक्त रहना है। अगर किसी ने कुछ बोल दिया और हमें फीलिंग आ गई, उसी व्यर्थ की फीलिंग से आपको और फीलिंग आती रहेगी और व्यर्थ फीलिंग की पैदाइश फास्ट होती जाएगी। चाहे कर्म हो, चाहे ईष्र्या भाव हो, चाहे नफरत हो, ये व्यर्थ की फीलिंग बहुत फास्ट होती है और हमें कमज़ोर करती है। और उसके आगे हम उस व्यर्थ को कभी सिद्ध करने के लिए बोलते हैं ना कि वो था ही झूठ और उस झूठ को फिर सिद्ध करने में और झूठ बोलते रहेंगे और उसके पीछे सारी एनर्जी हमारी खर्च होती जाती है। हम शक्तिहीन होते जाते हैं। सारे दिन में हमें ध्यान रखना होगा कि हम अपने अंदर क्या डाल रहे हैं, क्या भर रहे हैं और कौन-सी शक्ति जमा कर रहे हैं, क्योंकि वो शक्ति जैसी भी होगी वो हमारे कर्म में आएगी, हम रिस्पॉन्ड करेंगे, रिएक्ट करेंगे। हमें ध्यान रखना है कि ऐसी चीज़ों को होली हंस की स्मृति से समझना भी है, परखना भी है और उसे अलग भी करना है। जैसे आजकल के साइंस के साधनों में भी व्यर्थ को कार्य में लगाकर अच्छा बना देते हैं, कई वेस्ट चीज़ों को बेस्ट में परिवर्तन कर देते हैं। ये साइंस तो हमारी ही रचना है ना! मनुष्य ने ही साइंस बनाया है ना! जब हमारी रचना में इतनी शक्ति है, फास्ट परिवर्तन करती है, जैसे देखो, खाद होती है ना, तो खाद बुरी चीज़ है लेकिन पैदा क्या करती है? खाद गंदी है लेकिन बदबू को बदलकर खुशबूदार फूल पैदा करती है, सब्जियां पैदा करती है। ये भी तो रचना है ना। रचना में इतनी शक्ति है तो हम भी गाली देने वाले की गाली को फूल बनाकर धारण करें। वो गुस्सा करे, हम शांति का शीतल जल दें। ये परिवर्तन शक्ति हमें धारण करनी है। होली हंस का कत्र्तव्य ही है खराब को श्रेष्ठ बनाना। आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है! उसने खराब ही बोला ना, खराब बात कही और बहुत खराब कही। लेकिन खराब को ही तो अच्छा बनाना है ना, अच्छे को तो अच्छा नहीं बनाना है। जब अच्छा नहीं है तभी तो अच्छे की ज़रूरत होती है। अच्छा ही है तो अच्छा बनाने की क्या ज़रूरत! तो शक्तिशाली बनकर खराब को अच्छा बनाने की शक्ति धारण करनी है। अच्छा बनाने के कत्र्तव्य को हमेशा याद रखकर, ये वस्त्र पहनकर ही हमें विचरण करना है। बुरी बात या वायुमण्डल का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ जायेे, ये होली हंस का लक्षण तो नहीं हुआ ना! कैसा भी वातावरण हो, कैसी भी वृत्ति हो, कैसी भी वाणी हो, कैसी भी दृष्टि हो, लेकिन होली हंस सबको होली बना देता है। सदा हमारे में ये पॉवर रहे और सदा ऐसे तीव्र गति का परिवर्तन करने की विधि आ जाये तो हम क्या बन जायेंगे, मालूम है? पवित्रता का फरिश्ता। पवित्रता का फरिश्ता का मतलब ही है किसी के प्रभाव में न आना। अपना कार्य किया और वह चला। फरिश्ता कभी किसी के वश नहीं होता। न विघ्न के, न व्यक्ति के। फरिश्ता यानी सेवा की और न्यारा। ऐसी स्थिति हमें सदा मेंटेन रखनी है। तो अपने को चेक करना है, होली हंस बने हैं या बन रहे हैं? कब तक बनेंगे? कोई टाइम की हद भी है या नहीं है? कितने साल लगेंगे? ऐसे अपने आप से बातें कर अपने कत्र्तव्य के बोध को स्पष्ट भी करना, साथ-साथ अपनाना भी है और दृढ़ भी करना है। ऐसा तीव्र पुरूषार्थी बनना है।

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