ड्रामा की हर सीन सामने आती है। सब दिन होत न एक समान। पढ़ाई है लेकिन परीक्षा न हो तो पास कैसे होंगे! इसमें भी एक ईष्र्या, दूसरा निराश है, कभी प्रसन्न नहीं रहते। अगर खुद प्रसन्न हैं, परिवार प्रसन्न है, सेवा में प्रसन्न हैं तो बापदादा प्रसन्न हैं। ड्रामा में जो बात सामने आयी, खेल न समझा तो हार खायी, सीन बहादुर हो गयी। अपमान ने इफेक्ट में लाया तो जो स्वमान में रहने की बाबा ने अच्छी सुत्ती घोट के पिलाई है, उस पर विचार सागर मंथन करने की आदत ही नहीं है। अगर सूक्ष्म में जाकर देखें तो पढ़ाई का जो सार है वह बहुत काम कर रहा है। विस्तार में थोड़ा भी जाते हैं तो संकल्प की क्वालिटी नहीं रहती। निष्काम सेवा की स्थिति से नीचे आ जाते। सेवा में निरहंकारी भी नहीं रह सकते। एक ही टाइम पर कई प्रकार की सेवा सामने हैं। बेहद के सेवाधारी हैं। पाँच तत्वों के पार रहते हैं। जैसे बाबा बैठा है अनेक प्रकार के बच्चों को देखता है, दुखियों की पुकार सुनता है। हम आत्मा को क्या करना है? हमें कोई जंगल में नहीं जाना है। बाबा हमारे से क्या चाहता है! मैं तो फूल बनूँ, पर ऐसे फूलों को बाबा के सामने ले आऊं। बाबा ऐसा है जो कभी हमारे अन्दर चाहना पैदा होने नहीं देता है। बाबा जो चाहता है, बाबा को जो कराना है, उसमें हाँ जी, मुख से भले नहीं करो, पर हाजि़र रहो। एक बार बाबा ने मुझे कहा हुज़ूर कोई हुकुम है। तुमने हाँ जी कहा है ना, तो हुज़ूर सदा हाजि़र रहेगा। मुझे अपने आपको सम्भालना है, जो बाबा ने कानों में सुनाया है वही सोचना है। वही करना है, बस। बाबा ने खुद करके दिखाया है। बाबा जैसी सेवा कोई कर नहीं सकता। पर सेवा करते जितना निरहंकारी, निष्कामी रहा है, हमें भी उन जैसा रहना है।