ज्ञान क्या है समझा नहीं था। प्यार क्या है वो तो अनुभव की बात थी। परंतु जब संकल्प आया कि दादी के पास कुछ ज्ञान सुनने की इच्छा आई तो फिर जैसे-जैसे ज्ञान सुनते गये तो फिर तो बुद्धि का ताला खुलता गया। यही संकल्प आया छह सप्ताह के अन्दर कि बस मुझे यही अपनी जीवन बनानी है।
जैसा कि पिछले अंक में आपने पढ़ा कि बाबा ने हमें भी मास्टर प्यार का सागर बना लिया, प्रेम स्वरूप बना दिया, ताकि अन्य आत्माओं को भी हम उस प्यार का अनुभव करा सकें। नि:स्वार्थ प्यार जिसमें हमें उन्हों से कुछ नहीं चाहिए। परंतु हम प्यार के सागर की लहरें उन्हों तक पहुंचाते रहें। अब आगे पढ़ते हैंज् तो जब हम गिनती करते हैं कितना हमें सबकुछ मिला है तो फिर उस हिसाब से बाकी क्या रहा जो हमें इस संसार से चाहिए! और जबकि ये सोचते हैं कि बाबा खुद भी हमारा बन गया, भाग्यविधाता खुद भी हमारा इतना ऊंचा भाग्य बना रहे हैं तो फिर उसमें भी हम सोचते हैं कि बस औरों के साथ हम शेयर करते चलें। बाकी हमको कुछ चाहिए ये संकल्प ही नहीं रहता। कई कहते हैं हमको अपने लिए नहीं चाहिए परंतु सेवा के लिए चाहिए। क्यों, क्योंकि अनुभव ये कहता कि जिस तरह से माँ-बाप को मालूम होता कि बच्चे को क्या ज़रूरत है तो बच्चे को ये मालूम नहीं होता कि वो उसका वर्णन कैसे करे। उसको पता नहीं होता, बहुत छोटा बच्चा है। उसको ये भी नहीं मालूम होता कि उसे भूख है या प्यास है। माँ को पता चलता कि अभी टाइम हुआ है इसको कुछ खिलाना ज़रूरी है। तो माँ इतना ध्यान रखती। और आजकल तो भारत में मैंने सुना है कि जैसे ही बच्चे पैदा होते वैसे ही उनका स्कूल में, रजिस्टर में नाम लिखवा देते कि फलाने स्कूल में ये दाखिल होगा जब ये चार साल का होगा, इतना इन एडवांस प्लैनिंग करनी होती है यहाँ। तो बच्चे ने नहीं कहा कि मुझे अच्छे स्कूल में भेजो। बाप ने सोच लिया पहले से ही कि ये तो मेरा बेटा है उसको बहुत अच्छी पढ़ाई पढने के लिए बहुत अच्छे स्कूल में भेजना चाहिए।
तो हर बात में माँ-बाप पहले से ही ध्यान रखते हैं कि बच्चों को क्या चाहिए और बच्चे पहले से ही अनजान हैं तो पहले से ही उसकी ऐसी तैयारी कर लेते हैं जिससे उनको सबकुछ मिल जाए तैयार। तो हम बाबा के पास आये, हमको मालूम नहीं था क्या-क्या बाबा के पास मिलने वाला है, किसने हमको परिचय दिया या कैसे भी करके हम बाबा के दर पर पहुंच गये। और ये भी पता नहीं था कि कोई इस दरवाजे के द्वारा हमारी सब मनोकामनायें पूर्ण होने वाली हैं।
मैं तो जब पहले-पहले दादी जानकी के पास उनके बहुत छोटे से सेन्टर पर गई। मुझे तो सिर्फ जानने की इच्छा थी कि यहाँ से मुझे कुछ एजुकेशन के लिए कुछ मिलेगा। क्योंकि बचपन से पता तो था ब्रह्माकुमारीज़ का कि बाबा-मम्मा, दादियों से मुलाकात भी हुई। परंतु ज्ञान क्या है समझा नहीं था। प्यार क्या है वो तो अनुभव की बात थी। परंतु जब संकल्प आया कि दादी के पास कुछ ज्ञान सुनने की इच्छा आई तो फिर जैसे-जैसे ज्ञान सुनते गये तो फिर तो बुद्धि का ताला खुलता गया। यही संकल्प आया छह सप्ताह के अन्दर कि बस मुझे यही अपनी जीवन बनानी है।
तो आपने भी जब बाबा के द्वार में प्रवेश किया तब आपको भी मालूम नहीं था कि क्या-क्या प्राप्ति होने वाली है। परंतु बाबा ने पहले से ही आपका आह्वान करके अपने पास बुला लिया। राइट टाइम पर आप पहुंच गये। ज्ञान की बातें सुनी, बुद्धि का ताला खुलता गया और आपने सोचा यही श्रेष्ठ योगी जीवन मुझे अपनी बनानी है। तो बाबा की मदद से चलते रहे, चलते रहे मधुबन भी पहुंच गये तो अपना लक्ष्य जो और ऊंचा है गति, सद्गति का वहाँ भी अवश्य ही पहुंच ही जायेेंगे।
जब ज्ञान की पहचान होती उसमें भी खास बाबा की पहचान होती, और योग लगना शुरू होता तो योग के द्वारा बाबा शुरू में बहुत सुन्दर अनुभव कराते हैं मेरा तो अनुभव ये कहता। क्योंकि बाबा देखता है कि बिछड़ा हुआ बच्चा मेरे पास लौट के आया है तो बाबा खूब-खूब प्यार देते हैं। और फिर और आगे चलते तो बाबा की बहुत गहरी बातें समझ में आने लगती। तो जैसे-जैसे बाबा से सम्बन्ध जुटता जाता तो और गहरी प्राप्ति होती जाती। सहज वैराग्य वृत्ति उत्पन्न हो जाती।