बुद्धि अगर शुद्ध है तो बुद्ध है

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इस दुनिया में महान आत्माओं की फेहरिस्त(सूची) बहुत लम्बी है। और जितने भी सांसारिक लोगों ने धन, वैभव, संपदा का त्याग किया, उस त्याग के पीछे एक भाव छिपा था। वो भाव था इन्द्रियों से परे का सुख लेने का भाव। क्योंकि इस परिवर्तनशील संसार में हम सभी चाहे कितना भी प्रयास कर लें लेकिन इसको हम जीत नहीं सकते, क्योंकि ये हर पल बदल रहा है। जैसेे आज कोई युद्ध जीता, फिर दूसरे समय कोई और आक्रमणकारी आक्रमण कर दे, फिर कोई युद्ध जीता। ऐसे पूरे जीवन हम युद्ध ही तो लड़ते रहे! और बाहरी दुनिया को जीतने का प्रयास बहुत किया क्योंकि यह परिवर्तनशील है, इसलिए इसे जीता नहीं जा सकता। लेकिन मन के उद्वेगों को शांत करने की जो प्रक्रिया है, मन के उद्वेगों के अंदर जितनी भी चंचलता है उसको जीतने का सही नाम है मनजीत।
माना मैंने अगर मन को जीता, तो पूरे विश्व को जीता है। क्योंकि मन के अंदर इच्छायें हैं, कामनायें हैं और इन कामनाओं, इच्छाओं को अगर मैंने जीत लिया तो बाहरी दुनिया तो वैसे ही हमारे हाथ में है। इसलिए इतनी वैभव, संपदा, इतना कुछ ऐश्वर्य होने के बावजूद भी दिखाया जाता है कि बड़े-बड़े राजाओं ने अपने राजपाठ को छोड़ दिया। तो क्यों छोड़ा होगा? कहा जाता है इस दुनिया में अगर किसी को वैराग्य आए तो, अगर कोई छोटी चीज़ से ऊँची, कोई बड़ी चीज़ मिल जाए तो उसको छोडऩा आसान हो जाता है। जैसे अगर एक्सचेंज ऑफर में कोई कहे कि आपको साइकिल के बदले होंडा सिटी कार मिलनी है, तो क्यों ना खुशी होगी? खुशी तो होगी ही। या मॢसडीज मिलनी है तो और खुशी होगी।
ऐसे ही परमात्मा का प्यार, परमात्मा का जो अंदर का भाव है, अन्दर का सुख है या इन्द्रियों से परे का सुख जिसमें एक ठहराव है। जिसमें आगे बढ़ते हैं लेकिन ठहरे हुए हैं, संतुष्ट हैं। किसी भी तरह की कोई हलचल नहीं है। उसी हलचल, उसी ठहराव को इन संतों, महात्माओं ने प्राप्त किया। महात्मा बुद्ध भी उसी में से एक हैं। जिन्होंने इतने सारे धन, संपदा होने के बावजूद जब देखा कि सबकुछ बदल रहा है। मनुष्य बूढ़ा हो रहा है, शरीर भी बदल रहा है, धीरे-धीरे समाज भी बदल रहा है, सबकुछ खत्म हो जाएगा, ये भाव जब उनको समझ में आया तो उन्होंने इस परिवर्तनशील समाज को समझा और समझने के बाद अपने ऊपर काम करना शुरू किया।
कहा जाता है कि इतने सालों की तपस्या करने के बाद उनको पता चला इस नश्वर संसार में हम सब कुछ दिन के लिए आए हैं। और यहां पर आकर हम जो सुख भोगते हैं उसमें लिप्त ना हो कर, अपनी इच्छाओं और तृष्णाओं से ऊपर उठकर कार्य करें। और यही चीज़ हम सबको जीवन में सुख देगी, प्राप्ति कराएगी। तो हम सभी जो आज पुरूषार्थ करते हैं, अपनी बुद्धि को इन सारी बातों से जोडक़र रखते हैं।
कहा जाता है कि हमारा ब्रह्माकुमारीज़ का जो यज्ञ है इसमें भी बहुत सारी दादियां, बहुत अच्छे-अच्छे घरों से अपने आपको जोड़ते हैं। उनके लिए कहा जाता है कि बहुत अच्छे घरों सेथे लेकिन उन्होंने सारा वैभव त्यागा। परमात्मा का सुख लेने के लिए उन्होंने सब कुछ छोड़ा और आ करके बाबा को पहचाना, समझा, जाना और उसके साथ जुड़ गए। तो वो अतिन्द्रिय सुख इन सुखों से कितना बेहतर होगा? क्योंकि वो तो हर दिन इंतज़ाम करना पड़ता है। लेकिन इसमें एक बार मिल गया तो उसको सोच के भी हम खुश हो लेते हैं। तो ऐसी दुनिया, ऐसा जीवन, ऐसा समाज, ऐसा संसार, अगर हम सबको भी उस बुद्धि से बुद्ध की तरह बनना है, तो क्यों ना इसको समझ के इस संसार को, हम भी अपनी बुद्धि इन सारी बातों से निकालकर शुद्ध मन के साथ जोड़ें! क्योंकि जब हमारी बुद्धि पतित दुनिया में पतित चीज़ों के साथ जुड़ती है तो उसमें हम अपने आपको नीचे ही गिरता पाएगें। जिसमें एक स्लोगन परमात्मा हमको देते हैं- इच्छा हमको अच्छा नहीं बनने देती, क्योंकि हर इच्छा दाग लगाती है। जो भी इच्छा हमने की उसमें आपके अंदर लोभ भी होगा, मोह भी होगा या कोई अंहकार भी जुड़ सकता है।
तो जो भी इस पतित दुनिया के संकल्प हैं वह हमको पतित बनाते हैं। लेकिन जो परमात्मा की दुनिया है, जो परमात्मा का घर है, परमात्मा का जो साथ है वह हमको पावन बनाता है। तो तब तक बुद्धि शुद्ध नहीं होगी, बुद्ध नहीं होगी, जब तक हम बातों को समझ करके अपने आपको इससे ऊँचा न उठाएं। तो चलो इस कार्य को अब संजीदगी से करते हैं।

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