मुख पृष्ठलेखएक अनमोल मणि को भावांजलि - बीके मनोरमा, प्रयागराज

एक अनमोल मणि को भावांजलि – बीके मनोरमा, प्रयागराज

परम पूजनीय भ्राता बृजमोहन जी की पवित्र स्मृति में लिखित मेरा एक भावपूर्ण अनुभव एवं श्रद्धांजलि

प्रेरणा-स्रोत भ्राता बृजमोहन जी के प्रति सादर श्रद्धांजलि एवं वंदन

मानव की संस्कृति, प्रकृति और आकृति जब-जब विकृत होने लगी, तब-तब परमात्मा का अवतरण हुआ और सृष्टि के पुनर्निर्माण का यज्ञ आरंभ हुआ। ऐसे ही दिव्य युग परिवर्तन के समय परमपिता परमात्मा शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना की। इसी दिव्य ज्ञान की किरण ने एक उच्च कोटि की आत्मा को अपनी ओर आकर्षित किया — भ्राता बृजमोहन जी को ।
उस समय वे C.A. की उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। ज्ञान ने न केवल उन्हें, बल्कि उनके माता-पिता को भी अपनी ओर खींच लिया। उनके परिवार में आध्यात्मिक मूल्यों की धारा बहने लगी।
एक ओर कर्मक्षेत्र उन्हें कर्मयोगी बनने की प्रेरणा दे रहा था, तो दूसरी ओर प्रभुप्रेम उन्हें ईश्वरीय जीवन की ओर बुला रहा था। उन्होंने दोनों को मूल्य दिया — और एक संतुलित, संयमी, दिव्य व्यक्तित्व का निर्माण किया। आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर उन्होंने मानवता की सेवा को ही अपना जीवन-धर्म बना लिया।
उनका जीवन विनम्रता, प्रेम और श्रद्धा का अद्भुत संगम था। भ्राता जी ने जीवन को बहुत निकट से देखा, समझा और अनुभव किया। चुनौतियों को उन्होंने सहजता से स्वीकारा और प्रत्येक परिस्थिति में विजय का वरण किया। जब भी किसी कार्य को संस्था असंभव मानती थी, आदरणीय दादी प्रकाशमणि जी (तत्कालीन मुख्य प्रशासिका) उन्हें याद करतीं — और भ्राता जी अपनी सूझबूझ, निपुणता और ईश्वरीय शक्ति से उस असंभव को संभव बना देते।
उनकी सबसे बड़ी पहचान थी विनम्रता। अपनी विद्वता का उन्होंने कभी प्रदर्शन नहीं किया, बल्कि गहन आध्यात्मिक सिद्धांतों को सरल सूत्रों में बाँटते थे। माउंट आबू में महामंडलेश्वर सम्मेलन में जब उन्हें विचार व्यक्त करने हेतु आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने पूर्ण नम्रता से संतों का सम्मान करते हुए अपने विचार रखे, और संतों ने उनके भाव को श्रद्धा से स्वीकार किया।
उनकी रूहानियत उनके मुस्कराते, तेजस्वी चेहरे से झलकती थी। वे हर किसी से प्रेम और सम्मान से मिलते थे। उनके प्रति प्रत्येक ब्राह्मण आत्मा के मन में श्रद्धा और स्नेह का सागर उमड़ता था। अनुशासन को उन्होंने प्रेम-सूत्र में पिरोकर स्वयं भी पालन किया और सबको भी प्रेरित किया। संस्था की प्रगति के इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
उन्होंने इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय की छवि को अपने वक्तव्यों और लेखनी से वैश्विक मंचों तक पहुँचाया। Purity पत्रिका का संपादन वर्षों तक किया, जिसने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई।
उनका योगी-जीवन अतुलनीय था। अमृतवेले का योग उनका सबसे प्रिय समय था। वे प्रतिदिन प्रातः 3:20 बजे डायमंड हॉल में पहुँच जाते थे। मैं स्वयं उनसे पहले पहुँचने का प्रयास करती, परंतु चाहे एक मिनट का ही अंतर क्यों न हो — वे पहले ही वहाँ उपस्थित रहते। यह उनकी साधना की निरंतरता और संकल्प-शक्ति का प्रमाण था।
उनका हर विचार नवीनता से परिपूर्ण होता था । एक बार गीता सम्मेलन में उन्होंने मुझे प्रातः बुलाकर कहा — “आज संतों का सम्मान करेंगे, और गृहस्थ जीवन में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले परिवारों को संतों के हाथों से सम्मानित करवाएँगे।”
उनकी यह सोच केवल कार्य नहीं, बल्कि एक संदेश थी — कि संसार में श्रेष्ठता वही है जो संयम और स्नेह से युक्त हो।
आप Political Wing के अध्यक्ष रहे और आपने प्रत्येक दल के नेताओं की सेवा की — राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष या राष्ट्रीय अध्यक्ष — सभी को आध्यात्मिकता से जोड़ने का अद्भुत प्रयास किया।
आपका विश्वास था — “संघे शक्ति कलियुगे”, और उसी भाव से आपने नेतृत्व को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक दिशा दी।
भ्राता जी केवल वक्ता ही नहीं, बल्कि संगीतकार, कलाकार और चिंतक भी थे। ज्ञान सरोवर और ORC की आर्ट गैलरी आपकी कलात्मक दृष्टि की मिसाल हैं।
आपका गीता पर गहन अध्ययन और चिंतन अद्भुत था। आपने गीता के भगवान में योगीराज श्रीकृष्ण के विराट रूप में निहित निराकार परमात्मा को पहचाना और समाज के समक्ष प्रस्तुत किया।
आपका अत्यंत प्रिय श्लोक था —
“मनमना भव मद्भक्तो, मद्याजी मां नमस्कुरु।
ममेवेष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥”
(भगवद्गीता अध्याय 18, श्लोक 65)
आप महासचिव, फाइनेंस हेड और यज्ञ मैनेजमेंट कमेटी के सदस्य के रूप में सेवा, संयम और सृजनशीलता के प्रतीक बने।
और अंततः — 09 अक्टूबर 2025 को प्रातः 10:25 बजे — आपने अपनी पुरानी देह का त्याग कर बापदादा की गोद में विश्राम लिया।
आपकी स्मृति, आपकी शिक्षा, आपकी साधना —
हर ब्राह्मण आत्मा के लिए सदा प्रेरणा-स्रोत बनी रहेगी।
आपका जीवन स्वयं एक जीवंत गीता था,
जो हमें सिखाता है —
“सेवा ही साधना है, और साधना ही सफलता।”

बीके मनोरमा
अध्यक्षा, धार्मिक प्रभाग एवं प्रभारी ब्रह्माकुमारीज प्रयागराज सबजोन

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